*“यूनान, मिश्र, रोम, सब मिट गए जहां से, बाकी बचा है अभी नामो निशां हमारा।*
*कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा”।।*
स्व” का शाब्दिक अर्थ “अपना” या “स्वयं” है। यह किसी व्यक्ति की अपनी पहचान, आत्मा, या व्यक्तित्व, को दर्शाता है। यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो किसी व्यक्ति के आंतरिक होने का बोध कराती है। “स्व” के विभिन्न पहलू हैं, जिसमें व्यक्तिगत स्व, सामाजिक स्व, आध्यात्मिक स्व, सांस्कृतिक स्व शामिल हैं। संक्षेप में कहें तो स्व” एक व्यापक शब्द है जो किसी व्यक्ति के भीतर की सभी चीजों को समाहित करता है, जिसमें उसकी पहचान, भावनाएं, विश्वास, और मूल्य शामिल हैं।
स्व के अंतर्गत राष्ट्रनिर्माण में अपनी भूमिका निभाने वाले पक्ष:-
स्वदेश (स्वदेशी):
स्वदेशी दो शब्दों से मिलकर बना है: स्व (अपने) और देश (देश)। इसका अर्थ है “अपने देश का” या “अपने देश में निर्मित”। यह केवल वस्तुओं के उपयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें अपने देश की संस्कृति, मूल्यों, और परंपराओं को अपनाना भी शामिल है। आज के दौर में स्वदेशी की जब भी चर्चा होती है, तो एक ही बोध सामने आता है अपनी माटी, अपनी माटी की उपज, अपनी संस्कृति और अपनी परंपराएं, अपने देश में बनी हुई चीजें और उनका ही इस्तेमाल। स्वदेशी को लेकर स्थापित इस बोध या सोच की बुनियाद करीब एक सौ बीस साल पुरानी है।
1905 में जब अंग्रेजों ने सांप्रदायिक और धार्मिक आधार पर बंगाल का विभाजन किया, जिसे इतिहास में बंग-भंग आंदोलन के नाम से जाना जाता है, इसी के साथ स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ और ब्रिटिश वस्तुओं और उद्योगों का बहिष्कार करके अपने देश में बनी वस्तुओं का उपयोग करने का एक प्रयास हुआ। आंदोलन का उद्देश्य देश को आत्मनिर्भर बनाना और विदेशी शासन से मुक्त करना था। महात्मा गांधी ने स्वदेशी को “स्वराज की आत्मा” कहा था। लोकमान्य तिलक, रवींद्रनाथ टैगोर, और महात्मा गांधी आदि स्वतंत्रता संग्राम के द्योतक ने स्वदेशी आंदोलन का समर्थन किया। मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए साहस और संयम की पराकाष्ठा पार करने वाले स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने राष्ट्रहित को अखिल भारतीय चेतना बनाने में अविस्मरणीय योगदान दिया। भारतीय समाज को अस्पृश्यता के दंश से मुक्त कर एकता के मजबूत सूत्र में पिरोने हेतु वीर सावरकर जी ने आजीवन समर्पित कर दिया। स्वदेशी आंदोलन ने देश को जहां एक किया, वहीं अपनी उपज, अपनी पैदावार, अपनी दस्तकारी के प्रति लोगों को नए सिरे से सम्मोहित किया। उसी स्वदेशी आंदोलन की उपज खादी भी है। खादी तब से स्वदेशी का प्रतीक बनी हुई है।
भारत में स्वदेशी आंदोलन को नया मौका पिछली सदी के नौंवे दशक में शुरू हुए उदारीकरण ने दिया। उदारीकरण और बहुराष्ट्रीयकरण ने भारत को स्वदेशी की तरफ नए सिरे से सोचने को प्रेरित किया। स्वदेशी जागरण मंच के प्रेरक दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने स्वदेशी स्थापना की ओर लोगों का मार्गदर्शन किया। इसी दौर में आजादी बचाओ आंदोलन भी जन्मा। आजादी बचाओ आंदोलन के संस्थापक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राध्यापक रहे बनवारी लाल शर्मा को लगा कि बहुराष्ट्रीयकरण और औद्योगिकरण के साथ ही विदेशी वस्तुओं से भारतीय बाजार के पट जाने के बाद भारत कालांतर में अपनी आजादी खो देगा। ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहले भारत में कारोबार बढ़ाया और आर्थिकी पर कब्जा करने में सफल रही, जिसके खिलाफ आंदोलन तो बहुत चला। इन आंदोलनों की वजह से एक बार फिर भारत में स्व की सोच और आकर्षण भी बढ़े। वर्तमान में “मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया” व “आत्मनिर्भर भारत” की ओर बढ़ते हमारे कदम स्वदेश व स्वदेशी भावना को पूर्णरूपेण स्थापित करते हैं।
स्वभाषा:
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
स्वभाषा का अर्थ है अपनी भाषा, या वह भाषा जो व्यक्ति स्वाभाविक रूप से बोलता है, जिसे उसकी मातृभाषा या प्रथम भाषा भी कहा जाता है। यह शब्द किसी व्यक्ति की अपनी भाषा, उसकी संस्कृति और पहचान से जुड़ा हुआ है। स्वभाषा में अपनी मातृभाषा का उपयोग, वैश्विक स्तर पर अपनी भाषा की पहचान व सांस्कृतिक विरासत का परिचय, अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण, स्वभाषा में रचनात्मक कार्य व विकास आदि इसके मुख्य पहलू हैं। निज भाषा में व्यवहार करना, मातृभाषा में पढऩा, बोलना, समझना, जानना, बताना और समझाना सभी प्रकार की उन्नति, विकास और समृद्धि का मूल यही है। भारत एक भाग्यशाली देश है, जहां संस्कृत, तमिल, मराठी, हिंदी, गुजराती, मलयालम, पंजाबी आदि जैसी अनेक भाषाएं सदियों से भारतीय संस्कृति-परंपरा और जीवन संघर्षों को आत्मसात करते हुए अपनी भाषिक यात्रा में निरंतर आगे बढ़ रही हैं। भाषाओं की विविधता देश की अनोखी संपदा है। खुसरो, सूर, कबीर, विद्यापति, तुलसी, जायसी, मीरा, रैदास, रहीम, रसखान और जाने कितने ही महान कवियों ने हिंदी में ऐसा अमर साहित्य रचा, जो समय बीतने के साथ भी ताजा बना रहा।
अंग्रेजों के जाने के बाद भी औपनिवेशिक मानसिकता भारत में टिकी रही। स्वराज का स्वाभिमान, दायित्व और गौरव ‘इंडिपेंडेंस’ के अर्थ में स्वच्छंदता का रूप लेने लगा। परिणामस्वरूप हिंदी, जो एक व्यापक जन समुदाय की भाषा थी, सारे देश को जोड़ने वाली थी, अपनी सामर्थ्य, सम्मान और प्रसार को नहीं पा सकी। 1947 में अंग्रेज तो चले गए, लेकिन अंग्रेजियत अब भी जीवन के हर हिस्से में प्रभावी है। भारतीय ज्ञान, विज्ञान और उसकी श्रेष्ठता के प्रति संशय और अविश्वास, औपनिवेशिक मानसिकता का फल है। दासता, सभ्यता की हो या संस्कृति या फिर भाषा या जीवन दर्शन की, यह व्यक्ति समाज और राष्ट्र दोनों के सच्चे स्वराज बोध में बाधक है। इसी के कुछ उदाहरण अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय, प्राइवेट शिक्षण संस्थान, कॉरपोरेट कंपनियां हैं, जहां आज भी सिर्फ अंग्रेजी का ही पूर्णतः बोलबाला है और अंग्रेजी को ही सर्वोच्च समझा जाता है, हिंदी में बातचीत व कार्य करने वाले को कमतर आंका जाता है।
अंग्रेजों की नीतियों के कारण भारतीय भाषाओं के बीच की समरसता और बहुभाषिकता की स्वीकृति के प्रति संदेह पैदा हुआ, जबकि भारत में भाषा संस्कृति के निर्माण, मनुष्य के बलिदान और स्वाभिमान तथा जीवन का साधन रही है। भारत में भाषा का लोकोत्तर चरित्र व परंपरागत इतिहास है। उसे ज्ञान के विस्तार, निर्मिति और विस्तार के लिए उपलब्ध साधन के रूप में देख सकते हैं। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक संपूर्ण राष्ट्र एकता के सूत्र में बंधता है। स्वतंत्रता का गौरव भाव सर्वत्र तभी आएगा, जब शासकीय व्यवस्थाओं से लेकर के परिवार जीवन तक हम पश्चिम से आरोपित जीवन मूल्यों व भाषा से मुक्ति प्राप्त करेंगे।
शिक्षा के भारतीयकरण का अभियान भी भाषा के माध्यम से ही होगा। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस प्रकार के दृढ़ विश्वास का प्रतिपादन करती है। भारत भारतीय भाषाओं में बोले, व्यवहार करे, पढ़े और अनुसंधान करे, तो दासता से सहज मुक्ति प्राप्त होगी। आज आत्मनिर्भर भारत की दिशा में मुखर रूप से विचार किया जा रहा है। यह उद्यम देश को सशक्त बना सके, इसके लिए देश को उसकी भाषा लौटाने की जरूरत है। विश्व में अनेक देशों का अनुभव यही संकेत देता है कि देश की अखंडता, एकता, समृद्धि और गतिशीलता सबके मूल में भाषा की शक्ति का काम करती है। न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य और नागरिक जीवन के क्षेत्रों में स्वभाषा से ही जन-जीवन सुखी हो सकेगा और भाषाओं के बीच सौहार्द से ही अमृत काल का संकल्प देश को समृद्धि के पथ पर आगे ले जा सकेगा।
स्वभूषा (स्ववेशभूषा):
स्व वेशभूषा का मतलब है अपनी पसंद की पोशाक या कपड़े। अर्थात वह पोशाक जो हमारे राष्ट्र व देश की संस्कृति और परंपराओं को अग्रसर करती हो। अपने आचरण, अपने कार्यों में, दैनिक जीवन में अपने राष्ट्र की छवि को हम प्रतिपादित करें। अनेक रंग, रूप, बोली, परंपराएं, त्योहार, संस्कृति, सामाजिक परिवेश होते हुए भी हम सभी एक ही धागे में पिरोए हुए की भांति नजर आते हैं और अनेकता में एकता को परिभाषित करते हैं। भारतीय परिधान एक समृद्ध और विविध विरासत का हिस्सा हैं। उनमें विविधता है, जो क्षेत्र, संस्कृति और अवसरों के अनुसार बदलती रहती है। साड़ी, सलवार कमीज, लहंगा चोली, धोती-कुर्ता, और शेरवानी कुछ लोकप्रिय पारंपरिक परिधान हैं। भारतीय परिधान न केवल सौन्दर्यवादी व पहनने वाले की पहचान बताते हैं, बल्कि यह भी दर्शाते हैं कि वह किस क्षेत्र, संस्कृति और सामाजिक स्थिति से है। वे हमें अपनी जड़ों और विरासत से जोड़ते हैं। भारत में विभिन्न क्षेत्रों, संस्कृतियों और धर्मों के लोग रहते हैं। प्रत्येक क्षेत्र और समुदाय के अपने पारंपरिक परिधान हैं।
प्राकृतिक जीवन के सिद्धांत को देखा जाए तो पोशाक के संबंध में हमारे भारतीय मनीषियों को इसकी गहरी समझ थी। वे प्रकृति के इस नियम को जानते थे कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए वायु, सूर्य और प्रकाश का हमारी देह से जितना संपर्क होता रहे, उतना ही अच्छा है। मानव सभ्यता को कपास की खेती तथा उनसे निर्मित सूती वस्त्र भी भारत की ही देन है। 5 हजार वर्ष पूर्व हड़प्पा के अवशेषों में चांदी के गमले में कपास, करघना तथा सूत कातना और बुनती का पाया जाना इस कला की पूरी कहानी दर्शाता है। वैदिक साहित्य में भी सूत कातने तथा अन्य प्रकार के साधनों के प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं। कपास का नाम भी भारत से ही विश्व की अन्य भाषाओं में प्रचलित हुआ, जैसे कि संस्कृत में कर्पस, हिन्दी में कपास, हिब्रू में कापस, यूनानी तथा लेटिन भाषा में कार्पोसस। हर तरह के परिधानों का आविष्कार भारत में ही हुआ और भारतीय परिधानों का विकसित रूप ही आधुनिक परिधान हैं।
भारतीय वस्त्रों के कलात्मक पक्ष और गुणवत्ता के कारण उन्हें अमूल्य उपहार माना जाता था। खादी से लेकर स्वर्ण युक्त रेशमी वस्त्र, रंग-बिरंगे परिधान, ठंड से पूर्णत: सुरक्षित सुंदर कश्मीरी शॉल भारत के प्राचीन कलात्मक उद्योग का प्रत्यक्ष प्रमाण थे, जो ईसा से 200 वर्ष पूर्व विकसित हो चुके थे। कई प्रकार के गुजराती छापों तथा रंगीन वस्त्रों का मिस्र में फोस्तात के मकबरे में पाया जाना भारतीय वस्त्रों के निर्यात का प्रमाण है। आजकल, पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण, भारतीय परिधानों में भी बदलाव आ रहा है। पेंट, शर्ट, कोट और जींस को हम आधुनिक परिधान कहते हैं, पाश्चात्य नहीं। आधुनिकता और पाश्चात्यता में फर्क है। लोकमान्य तिलक और पण्डित मदनमोहन मालवीय अदालतों तथा इंग्लैंड की पार्लियामेंट तथा विभिन्न बैठकों में अपनी देशी पोशाक कुरता-धोती और पगड़ी पहनकर ही जाया करते थे। उन्होंने किसी दबाव अथवा प्रभाव से अपनी देशी वेशभूषा नहीं छोड़ी। जगत बंध बापू तो इसके आदर्श उदाहरण हैं। हम भारतीयों को यदि अपने राष्ट्र वेश विन्यास के प्रति आस्था नहीं है तो हम तन से तो स्वतंत्र हो गये किन्तु मन से अभी भी अंग्रेजों के गुलाम बने हैं।
भाषा, भूषा, भोजन और भजन से ही हमारी पहचान है। मुगल और अंग्रेजों ने पहले हमारी भाषा बदली, फिर हमारी भूषा बदली और अब हम मुगल, पाश्चात्य संगत, संगीत के दीवाने हैं। बाजार से भारतीय व्यंजन, पेय पदार्थ और देसी खानपान लगभग गायब हो गया है। पारंपरिक परिधान अभी भी भारत में बहुत लोकप्रिय हैं, खासकर त्योहारों और विशेष अवसरों पर अधिकतर पारंपरिक परिधान व वेशभूषा को ही धारण किया जाता है।
स्वधर्म और राष्ट्र:
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि “श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥“ जिसका अर्थ है, “अच्छी तरह से आचरण किए गए परधर्म (दूसरे का धर्म) की तुलना में गुणहीन स्वधर्म (अपना धर्म) श्रेष्ठ है। अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारी है, परधर्म भयदायक है”।
स्वधर्म का अर्थ है, “अपना धर्म” या “अपने कर्तव्य का पालन करना”। यह एक व्यक्ति के लिए निर्धारित मार्ग है, जो उसके स्वभाव, क्षमताओं और सामाजिक स्थिति पर निर्भर करता है। यह एक ऐसा मार्ग है जो व्यक्ति को उसके जीवन के उद्देश्य की ओर ले जाता है। “राष्ट्र स्वधर्म” का अर्थ है “राष्ट्र का धर्म” या “देश का कर्तव्य”। यह शब्द राष्ट्रीयता और धार्मिकता को एक साथ जोड़ता है, यह दर्शाता है कि एक व्यक्ति के लिए अपने राष्ट्र के प्रति क्या कर्तव्य हैं, और यह कर्तव्य अक्सर धार्मिक या नैतिक सिद्धांतों पर आधारित होते हैं। राष्ट्रधर्म राष्ट्रीयता और धार्मिकता के बीच एक संबंध स्थापित करता है। जैसे कि देश के प्रति निष्ठा, कानून का पालन, सामाजिक जिम्मेदारी, और दूसरों के प्रति सम्मान। राष्ट्रधर्म का पालन करना एक व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह उसे एक जिम्मेदार और उपयोगी नागरिक बनाता है। यह देश की प्रगति और विकास में भी योगदान देता है। संक्षेप में, “राष्ट्र स्वधर्म” एक व्यापक अवधारणा है जो राष्ट्रीयता, धार्मिकता, और सामाजिक जिम्मेदारी को जोड़ती है।
राष्ट्रधर्म में बस निष्पक्ष होकर राष्ट्र की सेवा की जाती है। प्राचीन भारत में सनातन वैदिक हिन्दू धर्म को राज्याश्रय प्राप्त होने के कारण यह राष्ट्र (व्यावहारिक) तथा परमार्थिक (आध्याति्मक) दृष्टि से प्रगति के पथ पर था । इसलिए सुसंस्कृत एवं समृद्ध समाज, उत्तम वर्ण व्यवस्था, आचार-विचारों की शुद्धि, आदर्श कुटुंब व्यवस्था इत्यादि की स्थापना यहां हिन्दू धर्म आधारित राष्ट्र में हुई थी । परंतु स्वतंत्रता के 6 दशकों के पश्चात भी ‘धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र’ की प्रशंसा करने वाले सर्वदलीय राजनेताओं के लिए सुसंस्कृत समाज एवं समृद्ध राष्ट्र की स्थापना करना संभव नहीं हुआ । स्वतंत्रता के काल से ही इन समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया जा रहा है; हिन्दू धर्म पर आधारित ‘हिन्दू राष्ट्र’ स्थापित करने की अनिवार्यता भी आवश्यक है।
पंचखंड भूमंडल में ‘भरतखंड (भारत)’ सर्वाधिक पुण्यवान है; क्योंकि यहां हिन्दू (सनातन) धर्म का असि्तत्व है। महर्षि अरविंद ने कहा था, ‘‘हम भारतीयों के लिए हिन्दू धर्म ही राष्ट्रीयता है । इस हिन्दू राष्ट्र का जन्म हिन्दू धर्म के साथ ही हुआ है तथा उसके साथ ही इस राष्ट्र को गति प्राप्त होती है । हिन्दू धर्म के विकास से ही इस राष्ट्र का विकास होता है। ‘राष्ट्र’ एक ऐसा जनसमूह है, जिसकी भाषा, धर्म अथवा पंथ, परंपरा, भूप्रदेश और इतिहास एक होता है; तथापि, राष्ट्रीयता निर्माण होने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बात होती है उस समाज के एक ‘राष्ट्र’ होने की दृढ इच्छाशकि्त । राष्ट्र और राष्ट्रीयता के मूलतत्त्वों एवं लक्षणों की कसौटी पर हिन्दू समाज की ओर देखने से ही, ‘हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा स्पष्ट होती है । भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपरा वैदिक है । यहां की सर्व भाषाएं संस्कृत भाषा से उत्पन्न हुई हैं । इसीलिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक सर्व धार्मिक विधियां वैदिक पद्धति से और संस्कृत भाषा में की जाती हैं । इसीलिए भारत भूमि केवल हिन्दुबहुल भूमि नहीं, यह एक स्वयंभू ‘हिन्दू राष्ट्र’ है । हिन्दुस्थान पहला देश होगा, जिसे ‘मातृभूमि’ के नाम से जाना गया । प्रभु श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।।’ अर्थात ‘माता एवं मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं !’ शिकागो (अमेरिका) से लौटते समय भारतीय तट निकट आने पर स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘‘इस क्षण मेरी प्रिय मातृभूमि से आने वाली पवन ही नहीं; धूलि भी मुझे बहुत प्रिय लग रही है” । आज भी ‘वन्दे मातरम्’ का उच्चारण करते समय हिन्दू भारतभूमि के समक्ष नतमस्तक होते हैं।
स्वराज:
भारत में सदियों से वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा रही है, लेकिन इस सोच में भारत का भाव किसी को गुलाम बनाने का भाव नहीं रहा है। जब हम किसी को परिवार मानते हैं तो उसमें किसी को गुलाम या अधीन बनाने का भाव नहीं होता। आज निश्चित रूप से भारत में स्वराज, स्वबोध और सुराज को लेकर एक सकारात्मक विमर्श खड़ा हुआ है। भारत में हिंदी के प्रति सर्वत्र सकारात्मक दृष्टि दिखाई दे रही है। अपनी भाषा, अपनी सभ्यता संस्कृति पर न केवल गर्व करना, अपितु उसे जीवन व्यवहार में उतारना हमारा कर्तव्य है। यही वास्तविक स्वबोध है और यही वास्तविक स्वराज है। भारतीय ज्ञान परंपरा की जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वीकृति बने, भारतीय मूल्य व्यवस्था को समाज जीवन में स्थान प्राप्त हो और सर्वत्र स्वदेशी, स्वभाषा, स्वधर्म, स्वभूषा और स्वबोध की भावना निर्मित हो। इसे प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में एक पवित्र प्रण की तरह स्वीकार करना ही चाहिए। वस्तुत: यह प्रण स्वभाषा, स्वदेशी और स्वबोध के साथ सर्वत्र दासता के चिह्नों से मुक्ति का उपक्रम है।
वर्तमान में प्रत्येक नागरिक को वैचारिक क्रान्ति की दिशा में सार्थक प्रयास करने की आवश्यकता है। इसके लिये स्व-राज के स्थायी भाव का जागरण करके नव-चैतन्य का संचार करना होगा। दुर्भाग्यवश, स्वाधीनता के पश्चात नेताओं और जनता में स्व का पूर्णत: लोप हो गया था। हम पराधीनता के पाश से तो जैसे-तैसे छुटकारा पा गये, परन्तु स्वतन्त्र नहीं हुए। प्रत्येक राष्ट्र का स्व उसकी प्रकृति होता है। स्व में व्यक्ति और राष्ट्र को गढ़ने की क्षमता होती है। प्रत्येक राष्ट्र जब अपने जन, जंगल, जमीन, जल और संस्कृति के परिवेश में तंत्र का विकास करता है तब सुशासन की स्थापना होती है। हमारे चेतना-वाहक स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, लोकमान्य तिलक तथा महात्मा गांधी ने स्वदेश, स्व-राज का गुणगान ही नहीं किया वरन् उसी में रामराज्य की अवधारणा के दर्शन किये। उसके पीछे लोकमंगल तथा लोक-चेतना का भाव निहित था। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने स्वतन्त्र की सुन्दर व्याख्या की है। उनका कहना था कि स्वतन्त्रता और परतन्त्रता का अन्तर शासन के सूत्रों का विदेशियों या स्वदेशियों के हाथों में रहना मात्र नहीं है। महत्वपूर्ण यह जान लेना है कि एक विदेशी शासक सुशासन दे सकता है पर स्वराज नहीं दे सकता। गीता में स्व के संदर्भ में कहा गया है कि अपने धर्म के अनुसार चलना स्वतंत्रता है। स्व-राज तब आयेगा जब स्व-तन्त्र की स्थापना होगी और स्वतन्त्रता से सुशासन स्थापित होगा। हम स्वाधीन तो हो गए हैं पर अभी पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं हुए हैं।
सार्थक आलेख हेतु आभार। लेकिन वास्तविक समस्या तो यह है कि यह सब हो कैसे? राजसत्ता,धनसत्ता और धर्मसत्ता - ये तीनों स्वराज्य, स्वभाषा और स्व दर्शनशास्त्र की घोर विरोधी हैं।
ReplyDeleteप्रयास से सब संभव है। हमें लगे रहना होगा और अपना कर्म करते रहना होगा।
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