गीता के परिप्रेक्ष्य में नैतिक कार्य
जब कभी भी गीता के बारे में कहीं चर्चा की जाती है तो हमारा ध्यान अक्सर ही अध्यात्म व निष्काम कर्म की ओर जाता है। साथ ही साथ गीता हमें नैतिक कार्यों को करने की सीख भी देती है और नैतिकता ही सम्पूर्ण जीवन का मूल मन्त्र है ।
गीता में लिखा है जब अर्जुन कुरुक्षेत्र की रणभूमि में खड़े होकर देखते हैं कि मुझे शत्रु पक्ष में अपने ही गुरुओं , सगे सम्बन्धियों , भाइयों व वृद्धजनों से युद्ध करना है तो उनमें मोह की भावना जग उठती है। उनके मन में विचार आता है कि मुझे इन सबसे युद्ध करके कल्याण की प्राप्ति कैसे हो सकती है और वे बाण सहित गांडीव धनुष त्यागकर रथ के पिछले भाग में जा बैठते हैं। तब भगवन श्री कृष्ण कहते हैं यह विपरीत आचरण न तो स्वर्ग को देने वाला है और न ही कीर्ति को बढ़ने वाला है। इसलिए तू इस तुच्छ हृदय दुर्बलता को त्यागकर युद्ध कर।
भगवान श्री कृष्ण के ऐसा तात्पर्य है कि अपने कर्तव्य का पालन न करना अपने लिए व समाज के लिए कभी भी हितकर नहीं हो सकता। कर्म करना तो मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसलिए मनुष्य को अनीति , अधर्म , असत्य के खिलाफ संघर्ष करना ही पड़ता है। अगर मनुष्य संसार में रहकर लोकहित कार्य कार्य नहीं करेगा तो समाज का विकास अवरुद्ध हो जाएगा।
"यदा यदा ही धर्मस्य , ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानम् अधर्मस्य , तदात्मानं सृजामि अहम्।। "
इस श्लोक के द्वारा भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि धर्म और सत्य की रक्षा लिए अध्यात्म, प्रेम ,सुनीति, निष्काम कर्म , मानवहित रूपी यज्ञ आदि के द्वारा ही अधर्म, असत्य, घृणा, द्वेष, हिंसा आदि को दूर किया जा सकता है। इसका सबसे अच्छा रास्ता ईश्वर भक्ति है। दरअसल वर्तमान काल में इन सब दोषों व विकारों को ही हर कदम पर देखा जा सकता है। आज समाज में अहंकार के कारण मनुष्य कुरीति, हिंसा, घृणा, शोषणआदि के रस्ते पर चल पड़ा है। इसलिए सत्पुरुष को चाहिए कि वह इन विकारों, कुविचारों से मुक्त होकर सुआचरण को अपनाकर स्वयं व समाज को एक नई दृष्टि दे। ऐसा करने के लिए गीता हमें अर्जुन जैसा कर्मठ योद्धा बनने की प्रेरणा देती है।
श्री कृष्ण जी दैवासुरी सम्पदा नामक अध्याय में अर्जुन को बताते हैं कि दैवी सम्पदा श्रेष्ठ पुरुषों के लिए है व आसुरी सम्पदा का सम्बन्ध कुविचारों से है। दैवी सम्पदा तेज, क्षमा, धैर्य, दया, ईश्वरप्रायणता, भक्ति, नैतिकता, विवेक, प्रिय भाषण, सत्य आदि के द्वारा मनुष्य को अधोगति की ओर ले जाती है। इसलिए श्री कृष्ण नेअसुरी सम्पदा को त्यागकर दैवी सम्पदा अपनाने की बात कही है। लेकिन वर्तमान कल पर एक नजर डालें तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। आज भी घर, मोहल्ले, गांव, शहर, देश-विदेश में जगह-जगह अन्याय, अत्याचार, लूट, डकैती, बलात्कार, अपहरण, निर्मम हत्या, शोषण, जैसे अमानवीय कुकृत्य देखने को मिलेंगे। इसी राक्षसी वृत्ती के खात्मे के लिए श्री कृष्ण ने अर्जुन को दैवी सम्पदा का प्रतीक कहते हुए युद्ध के लिए प्रेरित किया। क्योंकि मानवता की रक्षा व लोककल्याण ही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ धर्म है। शांतचित्त व आनंदप्राप्त व्यक्ति ही ऐसा कार्य कर सकता है। गीता का उपदेश न सिर्फ आत्मा का जागरण है बल्कि सुनीति, प्रेम, भाईचारा, शांति, आनंद, सामाजिक समानता का भी उदाहरण पेश करता है।
समस्त मानव जाती के कल्याण के लिए गीता में ३ गुणों की चर्चा की गई है। जिसमें सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण का विवरण है। सतोगुण को सुख व ज्ञान की आसक्ति से बंधा हुआ होने के कारण रागरूप कहा है। तमोगुण को आलस्य व निद्रा के वशीभूत अज्ञानी के लिए खा गया है। इसलिए समाज में यद्यपि सतोगुण की प्रधानता को अपनाया जाए तो समाज में अत्याचार, बलात्कार, हत्या, अपहरण जैसी घटनाएं नहीं दोहराई जाएंगी।
इसी प्रकार उन्होंने एक स्थल पर कहा है मैंने गुण-कर्म के आधार पर ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र जाती का विभाजन किया है। इससे जाहिर होता है कि हमें जाती-पाती, धर्म-संप्रदाय के भेदभाव रूपी विष को त्यागकर प्रतिभा व कार्यानुसार विभाजन कर लोकहित के कार्य करने चाहिए।
निष्कर्ष रूप में खा जा सकता है कि मनुष्य का कर्तव्य है कि वह समाज की भलाई के लिए नैतिक कार्यों को करने में अपना योगदान दे। इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं " सज्जनों का उद्धार करने के लिए, दुष्टों का संहार करने के लिए इस संसार में मैं समय-समय पर अवतार धारण करता हूँ "।
यही नहीं उन्होंने कर्म की बात करते हुए कहा है -
यही नहीं उन्होंने कर्म की बात करते हुए कहा है -
"कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन"।